मेरी चेतना जाग चुकी थी

खड़े थे कुछ लोग तुमसे दूर, गली के उस ओर,

मैं यह देख मुस्कराता था, यह समझकर कि,

शायद गली की शुरुआत मुझसे ही होती होगी,

यही समझकर कुछ कह नहीं सका शायद,

जो मैं कहना चाहता था,

और इस गुफ़्तगू में जिन्दिगी के हसीन लम्हे बीतते गये,

फिर मैं क्यों खामोश हो गया अचानक अपनी जिन्दिगी में,

शायद अब मेरी चेतना जाग चुकी थी,

और मैं अब खुद से दूर जाने लगा था,

और उतना ही मैं खुद के पास आने लगा था,

शायद अब मैं वो नकाब उतार चूका था,

हाँ अब मेरी चेतना जाग चुकी थी।

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